B.Ed. Sem 3-सृजनात्मकता के प्रमुख आयाम (Various Component of Creativity) 

B.Ed. Sem 3- Unit 3 notes

B.Ed. के द्वि-वर्षीय पाठ्यक्रम के तृतीय सेमेस्टर के विषय शिक्षा में मापन तथा मूल्यांकन (Measurement and Evaluation in Education) के सभी Unit के कुछ महत्वपुर्ण प्रश्नों का वर्णन यहाँ किया गया है। 

सृजनात्मकता के प्रमुख आयाम (Various Component of Creativity)

सृजनात्मकता (Creativity) का विवेचन बहुत से आयामों पर किया जा सकता है। कुछ महत्त्वपूर्ण आयामों का उल्लेख यहाँ संक्षेप में किया जा रहा है- 
(1) संवेदनशीलता– विद्वानों का विचार है कि अपने वातावरण और परिस्थितियों से सदैव सतर्क रहने वाला व्यक्ति ही सृजनात्मक हो सकता है। संवेदनशीलता का गुण सृजनात्मकता (Creativity) का एक आवश्यक अंग है। 
 
(2) विशिष्टता-सृजनात्मकता (Creativity) का एक प्रमुख आवश्यक अंग विशिष्टता है। पारस्परिक चिन्तन विधि से हटकर भिन्न विधि से सोचने-विचारने की क्षमता, सृजनात्मक चिन्तन में जिज्ञासा, कल्पनाशीलता, खोज तथा ग्रहणशीलता और नये प्रकार के तौर-तरीके सम्मिलित हैं। 
 
(3) मौलिकता– सृजनात्मकता (Creativity) के लिए मौलिकता और नये ढंग से कार्य करने की योग्यता अपेक्षित होती है। सृजनात्मकता (Creativity) का गुण तभी माना जायेगा जब मौलिक कार्य हो और प्रचलित तरीकों से हटकर नये ढंग से किया गया हो। 
 
(4) व्यावहारिकता– उपयोगी नवीनतम तरीकों को समझना और उसी के अनुरूप व्यवहार करना सृजनात्मकता है। व्यक्ति की सृजनात्मकता (Creativity) का आभास उसके व्यवहार के ढंग से हो जाता है। 
 
(5) परिणाम– विद्वानों के विचार से कोई भी कार्य सृजनात्मक तब तक नहीं होता जब तक हम उसके परिणाम को नहीं देख लेते हैं। जो कुछ सामने दिखाई पड़ता है वह केवल परिणाम है अतः परिणाम के आधार पर ही सृजनात्मक प्रक्रिया का अनुमान लगाया जा सकता है। 
 
(6) परिणाम और प्रक्रिया– सृजनात्मकता (Creativity) का एक प्रमुख आधार परिणाम और प्रक्रिया है। प्रक्रिया करने के बाद ही परिणाम की आशा की जा सकती है। प्रक्रिया के अभाव में परिणाम दिवास्वप्न मात्र रहता है। अतः सृजनात्मकता (Creativity) परिणाम और प्रक्रिया दोनों का ही प्रतिफल है। 
संक्षेप में सृजनात्मकता (Creativity) चिन्तन करने का एक नया तरीका है जिसे कार्य रूप में परिणित किया जा सके। यह एक योग्यता है, बुद्धि अथवा सीखने का पर्यायवाची नहीं है। वास्तव में इसका प्रस्फुटन चिन्तन के फलस्वरूप होता है। अपने प्राप्त अनुभवों को पुनर्गठित करने और सरलतम करने की गत्यात्मक प्रक्रिया है। नवीन परिस्थितियों में अपनी विशिष्टताओं और आवश्यकताओं के अनुसार सामंजस्य स्थापित करना है। सृजनात्मकता का स्वरूप चाहे मौखिक हो अथवा लिखित, मूर्त हो या अमूर्त, प्रत्येक स्थिति में व्यक्ति के लिए अभूतपूर्व होती है। यह किसी नये या अनोखे उत्पादन के लिए मार्ग दिखाता है। यह नियंत्रित कल्पना का एक रूप है, एक रचनात्मक योगदान है, तथा व्यक्ति के व्यक्तित्व का प्रतिबिंब है जिसके माध्यम से वह अपनी क्षमता को अभिव्यक्त करता है। सृजनात्मक प्रक्रिया का एक सुनिश्चित लक्ष्य होता है। वह या तो व्यक्तिगत रूप से उपयोगी होती है या फिर समूह या समाज के लिए उपयोगी होती है। 

सृजनात्मकता का आंकलन (Measurement of Creativity)

छात्रों की सृजनात्मकता को प्रोत्साहित करने के लिए यह आवश्यक है कि विद्यालय उन्हें खुला वातावरण, सामग्री और उचित अवसर प्रदान किया जाए। शिक्षाशास्त्री डीवी का विचार है कि विद्यालय अथवा विद्यालय के बाहर प्राप्त अनुभवों में उत्कृष्ट कोटि की सृजनात्मकता रहती है। उदाहरण के लिए खेल-कूद किसी बालक के लिए अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बन सकता है। नृत्य कला को भी इसकी आधारशिला बनाया जा सकता है। समाचार-पत्रों में लेख लिखना, चित्रों को बनाना आदि इस प्रकार के उदाहरण हैं जिनके माध्यम से सृजनात्मकता को दिखाने का अवसर प्राप्त होता है। यहाँ शिक्षक की भूमिका यह होनी चाहिए कि वह विद्यार्थी को उसकी सृजनात्मकता की प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति के लिए उचित माध्यम ढूँढ़ने में समुचित मार्ग-दर्शन करे। 

सृजनशीलता को प्रोत्साहित करने की विधियाँ-

सृजनशीलता को प्रोत्साहित करने के लिए गिलफोर्ड-आसबार्न आदि मनोवैज्ञानिकों द्वारा अनेक सुझाव दिये गये हैं। सृजनशीलता के प्रशिक्षण हेतु विभिन्न विद्वानों द्वारा जो उपाय बताये गए हैं उनके आधार पर शैक्षिक प्रावधानों का वर्णन निम्न रूप में किया जा सकता है- 
 
  1. शिक्षक को स्वयं भी सृजनात्मक प्रवृत्ति का होना चाहिए तभी वह छात्रों में सृजनात्मकता का विकास कर सकता है। इसके लिए उसे स्वयं भी साहित्य, विज्ञान, कला आदि के क्षेत्र में सृजन कार्य करना चाहिए और छात्रों को समुचित उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।  इससे छात्रों को प्रेरणा और प्रोत्साहन प्राप्त होता है। 
  2. शिक्षक को विद्यार्थियों को विभिन्न सृजनात्मक कार्यों के बारे में नवीनतम जानकारी एकत्र करने का अवसर और सुविधा प्रदान करनी चाहिए। उन्हें छात्रों को सृजनात्मक सोच के साधन और सिद्धांत बताने चाहिए तथा किसी विशेष आविष्कार में सृजनात्मक भागों की ओर इशारा करना चाहिए।
  3. छात्रों को नये विचारों को स्वीकार करने और उनका सम्मान करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए तथा उन्हें आत्मविश्वास विकसित करने के अवसर दिए जाने चाहिए। अध्यापक का यह भी कर्त्तव्य है कि वह छात्रों की रचना की प्रशंसा करे, उनमें स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दे तथा सृजनात्मक कार्यों के अभ्यास करने का अवसर प्रदान करे। 
  4. कला शिक्षण के समय छात्रों के सामने समस्यात्मक प्रश्न अथवा परिस्थिति रखकर उनकी प्रतिक्रियाओं को आमन्त्रित करना चाहिए और उनका उचित मूल्यांकन करना चाहिए। 
  5. शिक्षकों द्वारा छात्रों के ऐसा वातावरण दिया जाना चाहिए जो उन्हें प्रोत्साहित करने वाला हो तथा क्रियाशीलता और नम्यता की शिक्षा देने वाला हो। 
  6. शिक्षक को उत्पादन, चिन्तन और मूल्यांकन को प्रोत्साहित करना चाहिए। 
  7. जीवन के विभिन्न क्षेत्रों यथा-सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं वैज्ञानिक, तकनीकी तथा शैक्षिक आदि समस्याओं के समाधान की योजना प्रस्तुत करके छात्रों से हल कराने का प्रयास किया जाय। 
  8. शिक्षकों द्वारा छात्रों को सुधार, निर्माण, खोज एवं आविष्कार जैसी गतिविधियों में लगाया जाना चाहिए। इसके द्वारा उनमें सृजनात्मकता (Creativity) का विकास होता है। 
  9. सृजनात्मकता (Creativity) के विकास तथा प्रशिक्षण के लिए किसी कार्य में उनकी रुचि एवं अभ्यास को बनाये रखना चाहिए तथा यथासम्भव अभ्यास द्वारा उन्हें स्थिर होने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। स्थायीकरण के लिए उन्हें कभी-कभी मौखिक रूप से या वस्तु रूप में पुरस्कृत भी किया जाना चाहिए।
  10. अध्यापक हेतु यह उचित होगा कि वह छात्रों को विभिन्न स्रोतों से ज्ञान, कौशल तथा अन्य सूचनाएँ ग्रहण करने तथा संग्रह करने हेतु प्रेरित करें। उसे छात्रों को महान अन्वेषकों की जीवन-कथा से परिचित कराना चाहिए जिससे कि छात्रों को सृजनात्मकता (Creativity) की प्रेरणा प्राप्त हो। 
  11. छात्रों को उनके दैनिक जीवन की समस्याओं की कठिनाई स्तर को समझने का अवसर दिया जाना चाहिए। ये समस्याएँ उसके विद्यालय के कार्य अथवा विद्यालय के बाहर के कार्य से सम्बन्धित हो सकती हैं, परन्तु इस कठिनाई के स्तर को समझना स्वयंमेव नहीं हो जायेगा। यह तो कार्य करके अनुभव द्वारा ही सीखा जा सकता है। फलस्वरूप विद्यालय के कार्य, समस्या समाधान की योजना से युक्त होने चाहिए। समस्याएँ विद्यालय के कार्य, घर, सामाजिक सम्बन्ध एवं राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय कार्यों से सम्बन्धित हो सकती हैं। 
  12. सृजनात्मक के शिक्षण तथा विकास के लिए आवश्यक है कि छात्रों को समस्या समाधान के सन्दर्भ में तथ्यों का ज्ञान हो। इसके हेतु विद्यालय में छात्रों को पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन, छात्र संघ, विद्यालय, कृषि फार्म, विद्यालय जल-पान गृह अथवा उपभोक्ता भण्डार आदि के कार्यों में भाग लेने का अवसर तथा प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। 
  13. सृजनात्मकता (Creativity) के प्रशिक्षण तथा विकास के लिए छात्रों को मौलिकता की ओर अग्रसर होने हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षक छात्र के सम्मुख इस तरह की समस्या उत्पन्न करें जिसमें वह अपने पूर्व ज्ञान तथा तथ्यों के ज्ञान का स्थानान्तरण करते हुए कुछ मौलिक समाधान प्रस्तुत कर सके। 
  14. छात्रों में सृजनात्मकता (Creativity) के प्रशिक्षण तथा विकास हेतु उन्हें अपने निश्चय का खुद ही यथार्थ मूल्यांकन करने हेतु प्रेरित किया जाना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि जिस समस्या के समाधान अथवा नवीन रचना के हेतु छात्र ने जिन तथ्यों को लागू करने का प्रयास किया है, उसका वह स्वयं ही मूल्यांकन करे कि क्या वह उस समस्या के समाधान अथवा रचना में सहायक होंगे। 
  15. यथार्थ मूल्यांकन के साथ ही उन तथ्यों अथवा विचारों का परीक्षण भी आवश्यक होता है। इसके लिए वैज्ञानिक विधि को अपनाना चाहिए। यहाँ वैज्ञानिक विधि का अर्थ किसी प्रयोगशाला में परीक्षण से नहीं बल्कि केवल तथ्यों की सत्यता की जाँच से है। इसलिए छात्रों को वह समस्त सुविधाएँ तथा अवसर प्रदान किये जायें जहाँ वे अपने विचारों अथवा तथ्यों का उचित मूल्यांकन और जाँच कर सकें। 
उपर्युक्त विशेषताओं से स्पष्ट होता है कि भिन्न-भिन्न बालकों में भिन्न-भिन्न प्रकार की सृजनात्मक विशेषताएँ पाई जाती है। अतः बालकों के शिक्षण के लिए जो पाठ्यक्रम निर्मित किए जाएँ उनमें ऐसे तत्त्वों का समावेश किया जाय जिससे उनमें सृजनात्मक गुणों का विकास सम्भव हो सके।

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